प्रत्येक बच्चे को किताबें मिलें, ये उसका अधिकार है लेकिन प्रत्येक बच्चे तक किताबें पहुँचाना और उसे उत्सुक पाठक बनाना हमारा कर्तव्य है। आये दिन आपको बहुत सारे लोग शिकायत करते हुए मिलेंगे, कि अरे भई अब वो कल्चर नही रहा जब बच्चे किताबें पढ़ें, आजकल के बच्चों के हाथ में आपको मोबाइल और गेम्स ही मिलेंगे। पर यह सवाल उन लोगों को खुद से पूछना होगा कि उन्होंने अब तक कितने बच्चों को और कितनी किताबें पढ़ने के लिये मुहैया कराई हैं? क्या कभी कुछ दिन लगातार कोशिश की गई? कभी किसी किताब पर चर्चा की गई? ऐसे कई सारे सवालों से मुठभेड़ करना होगा।
पहली बार हम लोगों ने जब उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिले सोनभद्र के डाला गांव के स्कूल में बच्चों के साथ काम करना शुरु किया तो शिक्षकों का भी यही कहना था कि आप लोग क्यों नई किताबें बच्चों को दे रहे हैं? ये तो अपनी पाठ्य-पुस्तक ही पढ़ लें, बहुत है। लेकिन मन में यह किसी कोने बैठ चुका था कि ये सभी बच्चे पढ़ेंगे बस किताबें इन तक पहुचनी चाहिये। हम धीरे-धीरे एक-दो किताबें उनके पास ले जाने लगें, उन्हे कहानियाँ, कविताये सुनाते, चित्रों पर बात करते, उनकी अपनी कहानियाँ सुनते, उन्हें जानने की कोशिश करते-और कुछ समय बाद लगा कि हम सब अब एक पथ के साथी बन चुके हैं। एक दिन हमें ऐसा लगा कि वक़्त आ चुका है बच्चों को किताबों की दुनिया में ले जाने का। आठ मई को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्मदिन था और इससे सुंदर दिन और क्या होता। एक दिन पहले हमने उन दो कक्षाओं को किताबों, पोस्टर्स और शिक्षकों की मदद से बनाये पोस्टर्स और चित्रों से सजाया।
इस बात का खयाल रखा कि बच्चों की यह पहली पुस्तकालय यात्रा इतनी खूबसुरत और रोचक हो कि वे जब भी किसी लाइब्रेरी को देखें तो अपने इस सुंदर अनुभव को उससे जोड़ सकें। यह पहली यात्रा उनके मन में एक भावी पाठक का बीज बो दे। वे खुश होकर बार-बार इन किताबों के संसार में आयें और अपने जीवन के उन बिंदुओं को देखें जिसे दुनिया उन्हें देखने से रोकती है। जब मैं किताबें लगा रही थी और शिक्षकों से कह रही थी कि कुछ भी हो जाये, हमें बच्चों को किताबें पढ़ते या देखते समय टोकना नही है। उनके लिये कोई सलाह या बंदिश नही होनी चाहिये। सभी शिक्षकों का कहना था कि मैम बच्चे किताबें फाड़ सकते हैं या किताबें चोरी भी हो सकती है। इसलिये हमें ध्यान रखना होगा। मैने शिक्षकों को मना लिया कि वे कुछ भी बच्चों से न कहें, बाद में शिक्षकों ने इस बात का ख्याल रखा। हमने दो सत्र में यह पुस्तकालय यात्रा बाँट दी। जिसमें पहले कक्षा चार और पांच के बच्चों को एक घंटे का समय दिया गया, उन्हे पूरी आज़ादी थी पढ़ने की चाहे जैसे वे पढ़ें बैठकर, खड़े होकर, लेटकर, घूमकर। वही दूसरी कक्षा में कक्षा एक से तीन तक के बच्चों के साथ किस्सागोई(स्टोरीटेलिंग) का मजेदार सेशन चल रहा था। एक घंटे बाद पुस्तकालय वाले बच्चे स्टोरी टेलिंग वाली कक्षा में आ गये और ये बच्चे पुस्तकालय में चले गये।
इन सबमें सबसे मजेदार बात थी कि बच्चे बिना कहे एक अनुशासन में थें। वे जहाँ से किताबें उठाते थें, पढ़ने के बाद वहीं रखते थें। कक्षा एक का बच्चा जिसे किसी वर्ण या शब्द की पहचान नही थी वह एक-एक किताब उठाकर उसके चित्रों को देख रहा था। वही कक्षा एक के दूसरे छात्र ने नर्मदा नामक एक किताब को पूरे समय अपने साथ रखा जिसमें पहाड़ और झरने का ढेर सारा चित्र था। यह किताब उसने शायद इसलिये चुनी क्योंकि क्योंकि थोड़ी देर पहले पहाड़ वाली कविता उसने बहुत देर तक सुना और गाया था। बहुत सारे बच्चों ने कचरे का बादल कहानी पहले से सुन रखी थी, इसलिये उसका अंग्रेजी वाला संस्करण भी बच्चे अनुमान लगाकर पढ़ रहे थें।
इस पूरी प्रक्रिया में प्रत्येक बच्चे के पास किताबों को लेकर अपना अनुभव था। आखिर में जब हमने बच्चों से पूछा कि अगर आपको हर रोज हिंदी, अंग्रेजी, गणित की तरह पढ़ने की घंटी भी मिले तो कैसा रहेगा? मेरे अनुमान से भी ज्यादा बच्चों का जवाब ये आया कि हमारी विषयों की घंटी बहुत थोड़ी देर की होती है, जो कि मन पसंद किताबें पढ़ने के लिये बहुत् कम होगी। बच्चे बहुत उत्साहित थें किताबों को पढ़ने के लिये, जबकि उसमें करीब साठ प्रतिशत बच्चों को पढ़ने के लिये बहुत मशक्कत करनी पड़ती है।
बच्चों के जाने के बाद जब हमने शिक्षकों से बात की तो शिक्षक भी इस बात से आश्चर्यचकित थें कि किसी बच्चे ने एक भी किताब को खराब नही किया था और न ही कोई किताब गायब हुई। जिस क्रम में सुबह किताबें लगाई गई थी, सारी किताबें उसी क्रम में मिलीं। शिक्षकों का कहना था कि हमारे स्कूल में अगर लाइब्रेरी होगी तो बच्चों के साथ-साथ हमें भी पढ़ने में मजा आयेगा।
कुल मिलाकर पढ़ना या पढ़ने की रुचि विकसित करना सिर्फ अक्षर ज्ञान ही नहीं है, बल्कि एक वृहत और संयोजित प्रक्रिया है जिसमें मनौवैज्ञानक स्तर से लेकर भौतिक स्तर तक के कई कारक जुड़े होते हैं।
यह लेख आजतक की वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुका है। उपक्रम की सह – संस्थापक किरण ने लिखा है।