साल 2010 की शुरुवाती ठंड की प्यारी सी धूप थी. जब दिल्ली की एक बस्ती के बच्चों के साथ बातचीत करने का मौका मिला. मेरे लिये ये पहला अवसर था, जब मैं बच्चों के समूह के साथ कुछ सुनने – कहने के लिये आई थी. समझ नही आ रहा था कि शुरुवात कैसे करूँ अचानक याद आया कि क्यों न कोई कहानी सुनाई जाये. बचपन की याद से एक कहानी सुनाई जिसमें एक राजकुमार को उसकी सौतेली मां ने जादू से तोता बना दिया था. वह तोता दूर देश की एक राजकुमारी के पास पहुँचता और फिर कैसे दोनो में प्रेम होता है. ये कहानी सुनाने में शायद बीस मिनट का समय लगा होगा लेकिन इसके बाद जो बातचीत हुई वो लगभग तीन घंटे के करीब चली. जिसमें बच्चों ने फिर अपनी सुनी कहानियों के बारे में बताया जो इसी कहानी से मिलती-जुलती थी. फिर कहानी के कुछ मुद्दों को उठाया जैसे कि क्या वाकई में किसी इंसान को जादू से तोता बनाया जा सकता है, कुछ बच्चे कहते कि आज से सौ साल पहले ऐसा हो सकता था क्योंकि तब राजा महराजा हुआ करते थें. उस समय जादू से कुछ भी किया जा सकता था, कुछ बच्चों ने अपने आस-पास की जादू-टोने वाली कहानियाँ सुनाकर उसे साबित करने का भी प्रयास किया. कुछ बच्चों का कहना था कि कहानी में कहीं न कहीं कुछ सच जरूर होता है. कुछ बच्चों ने इसे काल्पनिक बताते हुए सिर्फ मजे के लिये सुनना-सुनाना करार दिया. तब तक मुझे कहानियों के सुनने- सुनाने के महत्व का कुछ पता नही था. दूसरी घटना वर्ष 2012 में साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में बच्चों के लिये कहानी सुनाने का एक सत्र था जिसमें मॉडर्न स्कूल के बच्चे आये थें और एक पेशेवर किस्सागो ने उन्हें अंग्रे़जी में एक कहानी सुनाई. उन बच्चों ने भी कहानी उतने ही चाव से सुनी और उसपर चर्चा की जितनी कि दो साल पहले झुग्गी के उन बच्चों ने की थी. कुल मिलाकर एक कहानी ने बच्चों को कितनी सारी बातें कहने-सुनने के अवसर प्रदान किये थे. इस कहानी के माध्यम से बातचीत का सूत्र मिला. जिसने एक नये इंसान को नये बच्चों के साथ जोड़ने में मद्द की. लेकिन इस प्रक्रिया में एक और बात जो निकलकर आई वह इस तरह थी कि जब दोनो समूहो से पूछा गया कि क्या वे रोज कहानी सुनते हैं, तो सबने ‘ना’ ही मे जवाब दिया. बच्चों के साथ लगभग सात वर्षों से लगातार काम करने के दौरान मुझे एक भी बच्चा ऐसा नही मिला जो प्रतिदिन कहानियाँ सुनता हो. ये समस्या सिर्फ शहरी क्षेत्र के बच्चों के साथ ही नही थी, बल्कि ग्रामीण क्षेत्र में भी बच्चों को कोई कहानी सुनाने वाला नही है.
यहाँ ये सब बताने का मकसद सिर्फ यही है कि कहानियाँ किस तरह से बचपन से गायब हो रही हैं और उनका प्रभाव् किस प्रकार से बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ रहा है. घर और विद्यालय से यह संस्कृति लगभग खत्म हो चली है जबकि ये कहानियाँ शुरुवाती दौर में स्कूल आने वाले बच्चों को भाषा के विस्तार में जितनी मद्द करेंगी, उतनी ही जल्दी पढ़ने-लिखने की क्षमता का भी विस्तार करेंगी. कहानियों के माध्यम से हम भाषा के उन सभी तत्वों पर काम कर सकते हैं जिन्हे आज के समय में समग्र भाषा पद्धति कहा जाता है. जिसके अंतर्गत (LSWR) यानि सुनना, बोलना, लिखना और पढ़ना- इन सभी का इस्तेमाल बखूबी किया जां सकता है. आज भी भारत के ग्रामीण क्षेत्र में यदि बच्चों के साथ कहानियों पर काम हो, उनसे बातचीत की जाये तो बच्चों के व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. यदि हम बच्चों को कहानियों के संसार से जोड़कर उनके पढ़ने-लिखने की क्षमता पर काम करें तो बच्चों की इस क्षमता का बेहतर विकास किया जा सकता है. उत्तराखंड के एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में वर्ष 2016 मे इसी प्रकार का एक प्रयोग किया गया. शुरु के कुछ दिनों में जो बच्चे बातचीत करने में झिझक रहे थे, वे धीरे-धीरे खुलने लगे. आगे चलकर इन्ही कहानियों के माध्यम से बच्चों की पढ़ने – लिखने की समस्या का भी समाधान हुआ. यदि स्कूलो में शिक्षक बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाने की शुरुवात वर्ण-व्यंजन की जगह कहानी या कविता के माध्यम से करें तो भविष्य में बहुत हद तक बच्चों की इस समस्या को खत्म किया जा सकता है. कहानियाँ सिर्फ कल्पनाओं के दरवाजे नही खोलती, बल्कि सोचने-समझने और गहन विचार की तरफ ले जाती हैं. कहानी अपने-आपमें एक बच्चे को कई सारे भाव में ले जाती है, जहाँ वो किसी पात्र की खुशी में खुश होता है, कभी उसके दुख की पीड़ा को महसूसता है, तो कभी-कभी कठिनाइयों में उलझे पात्र को अपने सूझ-बूझ से खुद निकाल लाता है. कहानियाँ बच्चे का सिर्फ अचरज संसार नही हैं, बल्कि वे उसकी वास्तविकताओं को समझने का एक बेहतर साधन हैं.
उपक्रम के माध्यम से हम अपने आस-पास के बच्चों को उस दुनिया में ले जाना चाहते हैं, जहाँ कल्पनाओं का सुंदर संसार हकीकत की राह देख रहा है, जो उनके आस-पास से कहीं खो गई हैं.
– यह लेख किरण ने लिखा है